स्वाधीन
देश मेरा जागृत है अधिप
अंतःकरण
सुषुप्त अवस्था में है केवल
कई कई बार जन्मा है यह
वात्याचक्र के
शिविर से निकल कर
जन्मी है इसने
कई-कई सभ्यताएं
उदीयमान हैं जो
सृष्टि के इस धवल मुख पर
बीजपत्र से ज्यों निकला हो
स्वर्ण अंकुर
कटभी के अंश मात्र-सा
सुगंधित
अतीत एवम् वर्तमान के
चरायंध अवरोध में
कर चुका है यह समय पूर्व
देहावसान उनका
निमित्त बनें हैं जिसके
क्षीणवपु सियासतदां
वाहिब ज्यों वसुधा को सौंपता हो
ताम्रयुग
शिल्पी_
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शिल्पी