मेरी मां- सूरज कुमार कुशवाहा

मां मेरी जीवन की हो, तुम मूर्तिकार,
तूने ही दिया है, ऐसा अनुपम आकार।

बाधा विघ्नों से तूने बचाया हर बार,
तुझे दुःख दिया हजार, तुने नहीं किया इंकार।

हर पल तुने संभाला मुझे, उठाया हर बार,
चोट क्या लगी मुझे, तुरंत किया तुने उपचार।

कभी गिरता, कभी उठता, चलना सिखाया हर बार,
बोलना सिखाया, पढ़ना सिखाया, सिखाया है सदाचार।

गलती करने पर तुने, मुझे मारा कितनी बार,
कितनी मीठी लगती हैं, मां तेरी ममता भरी मार।

सदा यही सिखाती हो मां, हर पर करो उपकार,
क्या बताऊं मां, मुझ पर है अगणित तेरे उपकार।

सदा आशीर्वाद दो मां, करूं तेरा सपना साकार,
पढ़ लिख कर महान बनूं, करूं ज्ञान का प्रसार।

दीन दुखियों का सहारा बनूं, बनूं उनका आधार,
अच्छे कर्मों से करूं स्वदेश का जग में प्रचार।

अजर अमर हो तुम, तेरी महिमा अपरम्पार,
तेरे अगणित उपकार मुझ पर है उधार।

आजीवन करूं सेवा तेरी, बनूं मैं तेरा आधार,
कोटि कोटि जीवन बलिदान करूं, कभी न चूकेगा तेरा उधार।

हर बार जनम लूं, तुझे ही पाऊं बारम्बार,
हर भूल क्षमा कर, मेरी विनती करो स्वीकार।

मेरी विनती करो स्वीकार।।

स्वरचित रचना ( मौलिक रचना)

शिक्षक-सूरज कुमार कुशवाहा
विद्यालय- नव. प्रा. वि. चैनपुर, उत्तर टोला
प्रखण्ड- मशरक
जिला- सारण,
बिहार

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