“मानवी”- सुरेश कुमार गौरव

suresh kumar gaurav

हुई धरा पर जब से मैं अवतरित,श्रद्धा का पूरा आवरण हूं,
नाम धराया “मानवी” व “अंशिका”,इसी का मैं अन्त:करण हूं,
सबकी गोद में खेलती-देखती, चहुंओर बांटती खूब ममता
सबके मन की तृप्तता और सरसता का अन्त: आचरण हूं।

आई जबसे धरा पर,सांसारिक मातृ-पितृ-स्वजर्नों की छाया हूं,
कलेवर नया है पर, नाम अंशिका-मानवी रुप की प्रतिछाया हूं,
बांट रही ममता,रुप पिता सा और मातृ की मन स्नेहिल छाया हूं,
स्वाति कण बन झरुंगी,वर्तमान रुप में सबकी प्रतिपर्ण माया हूं।

होऊंगी जब पूर्ण कर्म काल में परिणत, प्रेम प्यार सबमें भरुंगी,
कुमान्यताएं,कुरिवाजें,दकियानूसी रिवाओं को जरुर भंग करुंगी,
दे सकूं जीवन कर्म मैं अपना,
दिए नाम शुभ-मानवी रुप में रहूंगी
टूट रही संस्कृति,विचार और सुमान्यताएं, सबमें नया रंग भरुंगी।

काल खंड तो बननी है पर, सबके मन मंदिर की प्रथम चरण हूं
सबकी स्नेहिल छाया मिले सदा, क्यूंकि मैं रुप मानवी वरण हूं,
दे सकूं सबको अपना सुनाम, मानवी का सार्थक नाम करण हूं,
एक समय आऊंगी चरणबद्ध,अभी तो कर्म सेवा का भरण हूं।

युग-निर्माण में कुछ कण-कर्म मेरा भी रहे,ऐसा ध्येय मैं रखूंगी,
छल-प्रपंच से रहूंगी दूर सदैव,धरा पर शुभ कर्मरत रह पाऊंगी,
काल के अतीत-वर्तमान का संघर्ष भविष्य तब संवार जाऊंगी,
हे मानव रुप के जन!मेरे मर्म को समझें,नए रुप में मैं आऊंगी।

हुई धरा पर जब से मैं अवतरित, श्रद्धा का पूरा आवरण हूं,
नाम धराया “मानवी” व “अंशिका”,इसी की मैं अंतःकरण हूं,
सबकी गोद में खेलती-देखती, चहुंओर बांटती खूब ममता
सबके मन की तृप्तता और सरसता का, अंत:आचरण हूं।

सुरेश कुमार गौरव,स्नातक कला पटना (बिहार)
स्वरचित मौलिक रचना
@सर्वाधिकार सुरक्षित

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