पहली होली-संजीव प्रियदर्शी

sanjiv

शादी के उपरान्त फाग में,
मैं पहुँचा प्रथम ससुराल।
जूता पतलून थे विदेशी,
सिर हिप्पी कट बाल।
ससुराल पहुंचते साली ने
मधुर मुस्कान मुस्काई।
हाथ पकड़ कर खींची मुझको
फिर सीने से लिपटाई।
इतने में सरहज जी आई
दोल में भरकर गोबर।
साली के सहयोग से मेरी
खातिर कर दी दोबर।
विदेशी पतलून- पैंट पर,
था गोबर ने रंग जमाया।
देख ससुर जी सासु के संग
मन ही मन मुस्काया।
बोले, गोबर नहीं फबता,
इनको बेटी बड़बोली।
जीजा के संग नहीं ऐसी
है खेली जाती होली।
भरे रंग से यहां नाद में
जीजा जी को गोतो।
इतना पर भी मन न भाए
फिर काला पोंटिंग पोतो।
इतनी गत हो जाने पर
मैं दौड़ा घर के अन्दर।
भागी देखकर बुढ़िया दादी
समझकर मुझको बंदर।
आंगन में थी बीबी मेरी
कर सोलहो श्रृंगार।
लिपट गया उसे पकड़ मैं
समझ बचावन हार।
बीबी समझी है लोफर कोई,
यह मुझसे क्यों लिपटाया?
कई तमाचे खींच कर बोली,
यहां कैसे तुम घुस आया?
बीबी से थप्पड़ खाकर मैं,
विकल हो रो डाला।
तभी हाथ में डंडा लेकर
आ धमका बड़का साला।
लगा बरसाने डंडा मुझ पर
जैसे कोई मैं चोर।
दशा विकट देखी जब साली
वह दौड़ी मेरी ओर।
बोली -चोर नहीं, जीजा हैं,
था होली में रंग- रंगाया।
पहचान सकी न दीदी इनको,
था पहली होली में आया।
झटपट कोई गाड़ी मंगवाकर,
इन्हें डाक्टर घर ले चलिए।
दीदी रहे सुहागवती सदा,
शीघ्र रक्षा इनकी कीजिए।
होश आया तो तन पर देखा,
पट्टियाँ कई बंधी थीं
हाथ जोड़ कर बीबी मेरी
बेड के पास खड़ी थी।
माफ़ करो हे पति देवता,
रो – रो कर वह बोली।
मन में सोचा नहीं आऊँगा
फिर ससुराल खेलने होली।

संजीव प्रियदर्शी
(मौलिक)
फिलिप उच्च माध्यमिक विद्यालय
बरियारपुर, मुंगेर

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