समाज में किन्नर जाति
ईश्वर ने मुझको जन्म दिया,
माता के गोद में मैं भी पली,
मेरे भी रगों में लहू बहे,
वो रक्त वर्ण भी लाल रहे,
मेरे नयनों से भी नीर गिरे,
कई सपने, कई अरमान सज़े,
हर वक्त ख़ुश रहना सिख़लाऊँ,
फ़िर किन्नर क्यों मैं कहलाऊँ।
मेरे अंदर भी उत्साह है,
कुछ कर गुज़रने की चाह है,
मुझको भी रचा विधाता ने,
मेरे अंदर भी ज़ज़्बात दिया,
क्यूँ हेय दृष्टि से देख़े सब,
अहमियत अपनी रख़ती हूँ मैं,
हर तरफ़ शुभ सगुन दे जाऊं,
फ़िर किन्नर क्यों मैं कहलाऊँ।
क्यों रुप रंग का भेद यहाँ,
कोई मोल नहीं मानवता का,
नाचती, गाती मैं फ़िरती हूँ,
संगीत अंग, मेरे मन का,
दिख़ने में थोड़ी अलग-विलग,
स्वभाव से बड़ी सरल हूँ मैं,
झोली भर ख़ुशियाँ दे जाऊँ,
फ़िर किन्नर क्यों मैं कहलाऊँ।
नूतन कुमारी
पूर्णियाँ, बिहार