| मंज़िल बुला रही है |
क्यों मुरझाए बैठे हो?
शीष झुकाए बैठे हो!
देखो मंजिल बुला रही है,
बाँध कमर तुम दौड़ लगाओ ।
समय गंवाए बैठे-बैठे
किस सोच में डूबे रहते हो?
उत्थान की अपनी फिक्र करो,
नसीब को क्यों कुछ कहते हो?
राह तक रही उन्नति तुम्हारी
कदम बढ़ाओ अपनी आगे,
हिम्मत हौसला रखने वाले
भला रणभूमि से क्यों भागे?
जिसने खुदको खड़ा किया है
हर मुश्किल मैदानों में,
हाँ उसी को मंजिल मिली है, हाँ उसीने युग भी जीता,
जिसने शस्त्र उठाए हैं आँधी और तूफानों में ।
क्यों मुरझाए बैठे हो? शीष झुकाए बैठे हो ।
देखो मंजिल बुला रही है
देखो मंजिल बुला रही है।
रचयिता – मोहम्मद आसिफ इकबाल
विशिष्ठ शिक्षक उर्दू
राजकीय बुनियादी विद्यालय उलाव बेगूसराय बिहार।
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