“ढूंढ़ता हूं”
मैं माँ की सुनी माँग में
उस दमकती सुंदर आभा —
‘सिंदूर’ की वह पावन आभा ढूंढ़ता हूं,
जिसमें बसती थीं उसके जीवन की उजली सुबहें,
जिससे उसके सपनों में उजाला उतर आता था।
मैं माँ की सुनी पड़ी कलाई में
खनकती ‘चूड़ियों’ की खनक ढूंढ़ता हूं,
जो कभी हर काम के साथ झंकार बनकर
उसके मन का संगीत रचती थी।
मैं माँ के सुन पड़े पांवों में
‘पाजेब’ की छम–छम ढूंढ़ता हूं,
जिससे घर महकता था,
जिसकी ताल पर दीवारें मुस्कुराती थीं,
आंगन गुनगुनाता था।
मैं माँ के सुन पड़े गले से
पिता की मंगल प्रार्थना में घुला
वह मंगल गीत ढूंढ़ता हूं,
जिसे सुनकर सबका चेहरा
खिल उठता था,
मुस्कुराता था।
मैं उसके गले में पड़ी
अलंकृत मंगलसूत्र ढूंढ़ता हूं,
जो केवल गहना नहीं,
स्त्री जीवन का अटूट बंधन,
परम विश्वास और
असीम आस्था थी।
मैं माँ के माथे पर हरदम दमकती
उस सलोनी बिंदी को ढूंढ़ता हूं,
जो उसकी मुस्कान का आईना थी,
जो कहती थी —
“मैं अधूरी नहीं हूं, मैं पूर्ण हूं,
मैं इनके होने से संपूर्ण हूं।”
सचमुच —
पति का होना किसी भी स्त्री के लिए
सिर्फ सौभाग्य नहीं होता,
यह तो उसके अस्तित्व में रचा-बसा
परम सौभाग्य होता है।
अब मेरी माँ
अपने बेटों और पोतों में
पिता जी को ढूंढ़ती है,
हर पल उन्हें अपने साथ जीने का
मनोभ्यास करती है।
वह उनके चेहरे में पिता की झलक देखती है,
उनके हावभाव में उनकी परछाईं तलाशती है।
उनकी हर याद अब एक मौन प्रार्थना बन चुकी है —
जो माँ के चेहरे पर कभी आँसू लाती है,
तो कभी स्मृतियों का हल्का-सा उजाला बिखेर देती है।
कुछ चीजें सचमुच
ढूंढ़ने से नहीं मिलतीं —
वे केवल हृदय में बस जाती हैं,
याद बनकर,
श्वास बनकर
जीवन बनकर ।
अवनीश कुमार
व्याख्याता, बिहार शिक्षा सेवा
(शोध व अध्यापन उप संवर्ग)
