बचपन-संयुक्ता कुमारी

Sanyukta

बचपन

आज फिर से याद आई 
मधुर यादें वह बचपन की
चिंता रहित खेलना और खाना
न रोने का समय और न हँसने का बहाना 
मेरा बचपन भी था मद मस्त दीवाना।
अमीरी गरीबी का ज्ञान नहीं था,
यह जात पात को किसने जानी?
झोपड़ी में रहने वाली सहेली
भी दिखती थी महलों की रानी।।

चांद का अपने साथ चलते हुए देखना,
मन में उमंग बहुत रंगीली थी।
मेरी वह बचपन भी कितनी मस्त छबीली थी।
माँ के आगे हर चीज के लिए मचलना,
आम के बागों में दौड़ लगाना,
वाह! क्या वह स्मरणीय था जमाना ।
मेरा बचपन भी था मद मस्त दीवाना । 
वाह रे बचपन! एक बार फिर दे दे वही प्यारी मुस्कान।
रात में हर दिन माँ की नित नई कहानी और बेपरवाह आराम ।।

मैं बचपन को याद कर पुरानी यादों में खोई थी।
बोल उठी बिटिया मेरी,
माँ मैं ही तो आपकी बचपन हूँ ।।
जिसे मैं खोज रही हूँ बरसों से वह बचपन मेरी बेटी के रूप में आई है ।
मैं भी उसके साथ तुतलाती, खेलती, खाती,
मिलकर अपने बच्चों के बीच स्वयं भी बच्चा बन जाना।।
वाह ! क्या ये बचपन भी था मद मस्त दीवाना ।

जब भी किसी बच्चे को मजबूर और भूखे देखती हूँ ह्रदय रो पड़ता है अपना बचपन उनमें ढ़ूँढ़ती हूँ ।

बाल श्रमिकों को देख मन रो पड़ता है, कहाँ है इनका वह बचपन मस्ताना।
हम सब इनका मुस्कान लौटा कर इनमें ढूँढे अपना बचपना ।
इनका भी बचपन हो मस्त दीवाना।

जिसे कोई नहीं भूल पाता वैसा ही बचपन इन अनाथ बच्चों को भी दे।
वह भी भूखे न रहे उनकी भी मुस्कान हो निराला।।

यह भी अपना बचपन जिए खेले पढ़े और आगे बढ़े।
उन्मुक्त वातावरण में बोले – वाह! क्या यह स्मरणीय है जमाना ।

मेरा बचपन भी था मस्त दीवाना ।

संयुक्ता कुमारी
क० म० वि० मलहरिया

 बायसी  पूर्णिया  बिहार

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