धूप कहां देखती अपना घर- रामपाल प्रसाद सिंह अनजान

मदिरा सवैया
211-211-211-211=211-211-211-2


धूप कहाॅं दिखती अपना घर।


काॅंप रही किरणें अब ऑंगन,देख प्रभा यह पस्त हुई।
गर्म हवा अब भाग रही खुद,कोयल गाकर मस्त हुई।।
काग बिना सजती गलियाॅं अब,धूप खिली दिन बोल रहे।
धूप नहीं निकली दिन में तब,वृक्ष शिखा सह डोल रहे।।

आकर शीत किया जग शीतल,रश्मि डरी खुद से दिखती।
सोकर ओस नन्हे तृण ऊपर,भाग्य खुशी खुद से लिखती।।
जाकर दक्षिण आज दिवाकर,ऑंख दिखाकर बोल रहा।
उत्तर शीत हिमालय ऊपर,बर्फ बिछाकर डोल रहा।।

लौट गया घर बारिश मौसम, साथ हवा डर भाग रही।
छोड़ गया बस शीत धरा पर,नागिन-सी वह दाग रही।।
हैं सबके प्रिय पावन पावक,खींच रहे अपनेपन को।
आग जलाकर बैठ गए सब, छोड़ गए घर ऑंगन को।।


✍️✍️रामपाल प्रसाद सिंह ‘अनजान’
प्रभारी प्रधानाध्यापक मध्य विद्यालय दरवेभदौर

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