वह अनुपम अद्वितीय यौवना
सिर पर पत्थरों का भार लिए
एक हाथ से अपने
आँचल को संभालती।
हिरनी सी सजल आँखे
उसकी विवशता को दर्शाती,
सजने सँवरने के दिन,
नैन कर्मपथ को निहारते
हृदय कर्म में तल्लीन।
कोमल नाजुक से पैर
कंकरीली,पथरीली जमीन,
उसका निःशब्द सौंदर्य
पत्थरों के बोझ से
दबा जा रहा था।
उसके परिश्रम के बूते
महल बनाया जा रहा था।
विव्हल अंतरात्मा
प्रसंशा सुनने को आतुर।
स्वपनिल सपने सजाने की उम्र,
पत्थर ढोने को मजबूर।
हृदय को द्रवित करता
यह मंजर
न जाने कब मिलेगी
उसे मंजिल?
पूछ रहा उससे,
उसका”निःशब्द सौंदर्य”
बिंदु अग्रवाल शिक्षिका
मध्य विद्यालय गलगलिया
किशनगंज बिहार
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