सरस सुपथ-दिलीप कुमार गुप्त

Dilip gupta

Dilip Kumar Gupta

सरस सुपथ 

जीवन प्रवाह संताप नहीं
नैराश्य आर्त नाद पश्चाताप नहीं
पथ यह सहज सरलता का
सुपथ सुगंधित नैतिकता का
संतति को तू गढता चल
सरस सुपथ पर बढता चल।

असीमित भौतिक चादर न ओढ
आसक्ति से अब मुंह तो मोड़
दर्प हिम कूट नलिन बना
पाखंड कालकूट को पीयूष बना
समर्पण चीर तू फैलाता चल
सरस सुपथ पर बढता चल।

हिरण्य दरश क्षणिक आभा है
गहन तिमिर नेपथ्य छाया है
असार की चाह आसक्ति है
सार पनाह ही भक्ति है
भक्ति की शक्ति बढाता चल
सरस सुपथ पर बढता चल।

उर सिंधु मृदुल घन बनकर
दग्ध अवनि त्वरित हरित कर
चंचल चित तटस्थता का शोषक
अन्तर्द्वन्द सतपथ का अवरोधक
अतीत भूल, वर्तमान को जीता चल
सरस सुपथ पर बढ़ता चल।

मानवीय गरिमा की छलके गंगोत्री
करूणा शील सद्भाव की गायत्री
राग-द्वेष के संलयन तृष्णा को तोड़
मलिन वासना से न नाता जोड़
शुभ संस्कार सजाता चल
सरस सुपथ पर बढता चल।

तू बुद्ध नानक की हो संतान
वेद उपनिषद तेरे प्रज्ञा पुराण
सहजो मीरा की ललनायें
आंचल में तेरी संस्कृति कलाएं
ध्यान ज्ञान से आत्मिक बल बढाता चल
सरस सुपथ पर बढता चल।

तू जननी नव युग निर्माण की
पौरुष तू विश्व कल्याण की
भटकाव के दलदल को छोड़ो
कुंठा के भवसागर से उबरो
सेवा शतदल सुगंधि बिखरता चल
सरस सुपथ पर बढता चल।

दिलीप कुमार गुप्त

मध्य विद्यालय कुआड़ी

अररिया

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