शीतलता के बीच एक दोपहरी भटकी- रामपाल प्रसाद सिंह अनजान

शीतलता के बीच एक दोपहरी भटकी।
रोला

कैसा है लावण्य, रूपसी नाजुक नारी।
कोमल पीपल पात,सरीखे डिगती डारी।।
जो जाते उस राह,भनक लेते जो तेरा।
झलकी लेकर पास,अटककर लेते फेरा।।

बिन जाने तव चाह,चाह रखते हैं सारे।।
उनके खुलते भाग्य,बसे जो पास तुम्हारे।।
लख लाजो का रूप,हाल हो जाते वैसे।
प्रकट घटा घनघोर, मोरनी नाचे जैसे।।

करती क्यों श्रृंगार,नार मनहर मृग नैनी।
साधक भव लाचार,ऑंख नत देखी पैनी।।
सत्यवती श्रृंगार,अगर कर जाती होती।
क्या होता भगवान,एक फिर सीता रोती।।?

सत्यवती के नयन,बाण से घायल राजा।
भूला सकल समाज,प्रेम में सब कुछ त्यागा।।
हरियाली के भवन,मूल में अग्नि धधकी।
शीतलता के बीच,एक दोपहरी भटकी।।

तेरे कारण युद्ध,हुए इतिहास बताता।
वैरागी भी धीर,भंग कर पातक पाता।।
कहते हैं”अनजान”,जोड़ लो उनसे नाता।
युग जैसा हो वंश,कभी ना पूछा जाता।।

रामपाल प्रसाद सिंह ‘अनजान’
प्रभारी प्रधानाध्यापक मध्य विद्यालय दरवेभदौर
प्रकाशनार्थ प्रस्तुत

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