आदमी और जंगल- संजय कुमार

बूढ़ा बरगद रो-रोकर, यूं मुझसे कहने लगा!

क्या बिगाड़ा था? क्या बिगाड़ा था हमने?
कि तुम और तुम्हारी जात ने, विकास का नाम दिया,
हमसे और हमारी जात से, यूं ही युद्ध छेड़ दिया।

भाई! तुम आदमी, विचित्र जीव हो इस धरा के।
आगे बढ़ने की होड़ में,
पहले आपस में लड़ते-मरते हो,
फिर कभी साथ मिलकर,
दूसरे जीवों को मारने लगते हो।

बूढ़ा बरगद रो-रोकर, यूं मुझसे कहने लगा!
तुम आदमी विचित्र जीव हो इस धरा के!

तुम्हारे पूर्वजों ने तुम्हें विकास का इतिहास बताया था,
हमारे पूर्वजों ने भी हमें तुम्हारा अत्याचार समझाया था।
उन्होंने हमें बताया —
आदमी का इतिहास कभी
शांति और अहिंसा का नहीं रह पाया था।

आपस में मार-काट करता है —
कभी साम्राज्य विस्तार कर,
कभी धर्म, जाति और नस्ल के नाम पर।

बूढ़ा बरगद रो-रोकर, यूं मुझसे कहने लगा!
तुम आदमी विचित्र जीव हो इस धरा के!

उलझनें अपनी बढ़ाकर,
पहले खुद को फंसाते हो।
फिर बेचैन हो —
न खुद जागते हो, न सोते हो,
न दूसरों को चैन से रहने देते हो।

बूढ़ा बरगद रो-रोकर, यूं मुझसे कहने लगा!
तुम आदमी विचित्र जीव हो इस धरा के!

कभी जंगलों के अधिग्रहण के लिए लड़ते हो,
काटने के लिए झगड़ते हो।
फिर जंगलों के कटने से वर्षा कम होने लगती है,
तो अब पानी के लिए लड़ते-मरते हो।

रोते-रोते बूढ़ा बरगद, भावविह्वल हो गया,
अंत में आंसू पोंछकर यूं मुझसे कहने लगा —

“तुम आदमी इस धरा पर, सबसे अच्छे जीव हो।
खुद प्रफुल्लित होकर जीयो, दूसरों को भी जीने दो।”

संजय कुमार
जिला शिक्षा पदाधिकारी, अररिया

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