वो शाम सुहानी जाते जाते,
कर गई रूहानी जाते जाते।
संदूक में दबा कर रखा था,
जिन जज़बातों को हमने कभी,
न जाने कैसे खुल गई जाते जाते।
कितना कुछ बदल गया,
कितना कुछ पीछे छूट गया,
कुछ जुड़ गया, कुछ टूट गया।
सिलवटे दिलाती हैं याद उन लम्हो की,
अब ज़रूरत क्या उनको जीने की।
बदलते वक़्त में दौड़ चली हूँ मैं,
प्रारंभ हैं एक प्रयास की,
हैं कोई चिंता अब मुझे नहीं जीत-हार की।
हर पल के लिये तैयार हूँ मैं,
ओजस्वी होना मेरी पहचान है।
अब रुकना नही मुझे किसी पार हैं,
रुकना नही किसी पार हैं।
द्वारा: अदिती भुषण
विद्यालय: प्रा० वि० महमदपुर लालसे
प्रखण्ड: मुरौल
जिला: मुजफ्फरपुर
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