माँ
माँ!
सुंदर !
बहुत सुंदर,
शब्द ब्रम्ह समाया,
अंतस्थ अन्तर्मन रोम-रोम,
स्पंदन, समर्पण, सुंदर, सुरभित चितवन!
माँ!
मेरी संगिनी,
प्रेम की रागिनी,
दुलार की अद्भुत सरिता,
प्रेमाश्रु की अथाह मीठी नदी।
माँ!
कोमल स्पर्श,
ममता का दर्प
हरती है सब दंश,
मैं तो माँ का अंश।
माँ!
बसती मुझमें,
मैं सँवरती उससे,
माँ जैसी लगती हूँ ?
आईने से पूछती हूँ हमेशा!
माँ!
मुस्कुराती मुझमे,
सहलाती है मुझे,
गुदगुदाती और दुलारती है,
मुझे बहुत याद आती है।
डॉ स्नेहलता द्विवेदी आर्या
उत्क्रमित कन्या मध्य विद्यालय शरीफगंज कटिहार
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