धक्के खाते लोग,
दर-दर भटकते लोग,
जहरीली हवा निगलते लोग,
सपनों को रौंदते–कुचलते,
एक-दूसरे से आगे निकल जाने की चाह में
अपराध की सीढ़ी चढ़ते लोग,
सुकून की तलाश में आफत मोल लेते लोग।
भूख से बिलखते नन्हे चेहरे
को पीठ पर लादे,
हाथ पसारती बेबस माँ।
रेड लाइट होने पर
ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर खेल दिखाकर
पेट भरने को बेबस–लाचार बच्चे।
अट्टालिकाओं में क़ैद,
बाल-श्रम को मज़बूर,
कोड़े सहते हज़ारों बच्चे।
रोज़ अपनों की तलाश में
चौकी लगाते,
रोते–बिलखते परिजन।
अकेलेपन की घुटन में
अपने को ढाँपते–छिपाते अनगिनत लोग।
धुएँ में घुटती साँसें,
थककर रुक जाने को आतुर।
पर साँसों की क्या कीमत –
नहीं समझते लोग,
मजबूरी की अथाह चादर में लिपटे असीमित लोग!
शायद यह शहर कुछ और कहना चाहता है?
नहीं – यह शहर अभी बहुत कुछ कहना चाहता है।
नहीं – यह शहर सब कुछ कहना चाहता है।

अवनीश कुमार
बिहार शिक्षा सेवा (शोध व अध्यापन उपसंवर्ग)
व्याख्याता, प्राथमिक शिक्षक शिक्षा महाविद्यालय, विष्णुपुर, बेगूसराय
