सुन री दीया
काश! तू सुन पाती,
मेरी विरह-व्यथा समझ पाती।
तेरी जलती लौ से,
क्या-क्या अनुमान लगाऊं?
मद्धिम पड़ती लौ से,
क्या-क्या कयास लगाऊं?
बिन पिया, दीया, तुझे क्या-क्या बताऊँ?
बिन पिया, दीया, तुझे क्या-क्या सुनाऊँ?
वन का पथ श्रीराम को मिला,
संग चला सीता का साया,
उर्मि को लखन का दृढ़ विश्वास मिला,
पर मैं…?
पिया पास होकर भी न पास दीया!
पिया पास होकर भी न पास दीया!
उर्मि जस विश्वास न मिला,
सीता जस साथ न मिला।
मेरा कैसा प्रारब्ध दीया?
मेरा कैसा प्रारब्ध दीया?
पर री दीया!
मेरा क्या दोष, दीया?
ना सुसंगिनी, ना अर्धांगिनी,
ना सहचरी, ना स्नेह की छाँव,
बस मौन, प्रतीक्षा, संताप और बेजान शरीर लिए
अयोध्या की बेजान महलो को निहारती ठाँव
और तपस्वी पति भरत का चौदह वर्ष का वह संकल्पित नंदीगाँव
चौदह वर्ष का वह संकल्पित नंदी गाँव।
हाय! ये विधि का विधान,
हे ब्रह्मा! कैसा मेरा भाग्य दिया।
कैसा मेरा प्रारब्ध दीया!
कैसा मेरा प्रारब्ध दीया!

लेखन व स्वर:-
अवनीश कुमार
बिहार शिक्षा सेवा ( शोध व अध्यापन उपसंवर्ग)
व्याख्याता
प्राथमिक शिक्षक शिक्षक महाविद्यालय विष्णुपुर,बेगूसराय
