सुन री सखी- अवनीश कुमार

Awanish Kumar Avi

सुन री सखी!

यदि वे मुझसे कह न पाते,

लिख कर ही अपनी व्यथा छोड़ तो जाते।

विश्वास के बंधन बाँध तो जाते,

सखी काश ! वे मुझसे अपनी व्यथा कह पाते।

हाय ! हाय !

एक अविश्वास की रेखा खींच गए,

यों ही हमें तड़पता छोड़ गए।

मुझे सिय साबित होने से पहले ही रोक गए

मुझे सिय साबित होने से पहले ही रोक गए

आपकी चिंता राहुल थी यदि

फिर क्यों

शकुंतला पुत्र भरत को भूल गए?

नहीं माँ-बेटे आपके मार्ग की व्यवधान बनते,

हम आपके सद्चरणों की ही पहचान बनते।

सात जन्मों का साथ इस जन्म में ही क्यों भूल गए

हमें पल-पल तड़पता क्यों छोड़ गए?

यदि आपके मन में लाख तूफ़ान उठ रहें थे

मेरे मन में क्यों ज्वाला छोड़ गए

मेरे मन में क्यों लाखों सवाल छोड़ गए?

सच कहती हूँ सखी!

यदि वे मुझसे कहकर जाते,

विश्वास के धागे टूट न पाते।

अवनीश कुमार
व्याख्याता, बिहार शिक्षा सेवा

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2 thoughts on “सुन री सखी- अवनीश कुमार

  1. सर,आपके द्वारा रचित विरह’ की ये पंक्तियां पढ़ के ऐसा लगा जैसे मुझ पर ही ये सब बीती हो। बहुत ही बेहतरीन रचना है।
    इस पंक्तियों को पढ़कर मैं भाव विभोर हो गया।
    आपकी स्वरचित कविता ”विश्वास के धागे टूट न पाते” में अपनी सखी के प्रति अविश्वास का भाव है जो उस परिस्थिति में लाजमी है, लेकिन इस जुदाई ,इस विरह का एक और भी पहलू हो सकता है जो अदृश्य हो…हो सकता है सखी की कोई मजबूरी रही होगी।
    उस सखी के तरफ से कुछ पंक्तियां…

    रही होगी समय की मजबूरी
    जो कुछ कह न पाए हम
    शब्द होंठों पर आकर रुके
    दिल की बातें रहीं अनकही कहीं।

    सपनों की राहों में उलझे हम
    मन की गहराईयों में डूबे रह गए
    हर लफ्ज़ कहने को बेताब था
    पर वक्त की बंदिशों में सिमट गए।

    शायद कभी मिले फिर से फुर्सत
    जब कह सकें वो अनकहा सब कुछ
    अब भी दिल के कोने में बसे हैं
    वो जज़्बात जो कभी छुप गए थे।

    समय की मजबूरी थी शायद
    पर दिलों की दूरियाँ नहीं
    कह न पाए जो कहना था
    वो बातें, वो बातें… रहती हैं यहीं।

    ~Raghu Mehta
    (STUDENT, PTEC VISHNUPUR)

  2. सर,आपके द्वारा रचित विरह’ की ये पंक्तियां पढ़ के ऐसा लगा जैसे मुझ पर ही ये सब बीती हो। ये बहुत ही बेहतरीन रचना है।
    इस पंक्तियों को पढ़कर मैं भाव विभोर हो गया।
    आपकी स्वरचित कविता ”विश्वास के धागे टूट न पाते” में अपनी सखी के प्रति अविश्वास का भाव है जो उस परिस्थिति में लाजमी है, लेकिन इस जुदाई ,इस विरह का एक और भी पहलू हो सकता है जो अदृश्य हो…हो सकता है सखी की कोई मजबूरी रही होगी।
    उस सखी के तरफ से कुछ पंक्तियां… ……………………रही होगी समय की मजबूरी, जो कुछ कह न पाए, हर शब्द होंठों पर आकर रुके, दिल की बातें रहीं अनकही कहीं। सपनों की राहों में उलझे हम, मन की गहराईयों में डूबे रह गए, हर लफ्ज़ कहने को बेताब था पर, वक्त की बंदिशों में सिमट गए। शायद कभी मिले फिर से फुर्सत जब , कह सकें वो अनकहा सब कुछ, अब भी दिल के कोने में बसे हैं वो जज़्बात ,
    जो कभी छुप गए थे। समय की मजबूरी थी शायद,
    पर दिलों की दूरियाँ नहीं, कह न पाए जो कहना था, वो बातें, वो बातें… रहती हैं यहीं। ~Raghu Mehta (STUDENT, PTEC VISHNUPUR)

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