मेरी हर यात्रा- अवनीश कुमार

Awanish Kumar Avi

 

सुन री सखी-सहेली!

वे राम बने, मैं मर्यादा की सीमा बनूँ,

वे कृष्ण बने, मैं राधा की काया बनूँ,

वे विष्णु बने, मैं उनकी हरिप्रिया बनूँ,

वे शिव बने, मैं शक्ति का आधार बनूँ,

वे सिंह बने, मैं उसके साहस की ध्वनि बनूँ,

वे देव बने, मैं उनकी दिव्यता बनूँ,

वे गंधर्व बने, मैं रिझाती अप्सरा बनूँ,

वे चाँद बने, मैं उसकी शीतलता बनूँ,

वे दीप बने, मैं चटकती लौ बनूँ,

वे स्वामी बने, मैं उनके चरणन की दासी बनूँ,

वे धरती, आकाश बने, मैं उनकी अनंत बनूँ,

वे पुष्प बने, मैं उसकी मधुरता बनूँ,

वे प्रिय बने, मैं उनकी प्रियंवदा बनूँ,

वे सागर बने, मैं उसकी लहर बनूँ,

वे प्राण बने, मैं अंतर्मन बनूँ,

वे मंदिर बने, मैं शांति बनूँ,

वे प्रभु बने, मैं हरिकीर्तन रहूँ,

वे मस्जिद बने, मैं सुकून बनूँ,

वे धर्म बने, मैं धर्म-ध्वजा बनूँ,

वे मुरली बने, मैं उनकी अधर रहूँ,

वे हिमालय बने, मैं गंगोत्री-यमुनोत्री बनूँ,

वे अग्नि बने, मैं उसकी दीप्ती बनूँ,

वे उत्सव बने, मैं उसकी भव्यता बनूँ,

वे उमंग बने, मैं सतरंग बनूँ,

वे रात्रि बने, मैं उसकी रैन बनूँ,

वे घर बने, मैं उसकी आत्मा बनूँ,

वे भाषा बने, मैं उसकी सुंदरता बनूँ,

वे व्याकरण बने, मैं नियमों का आधार बनूँ,

वे तीर्थ बने, मैं उनका पावन बनूँ,

वे मेरे स्वर बने, मैं उनकी अक्षरा रहूँ।

वे वे न रहें मैं मैं  न रहूँ,

वे हममें रहें हम उनमें रहें,

वे हमसे रहें हम उनसे रहें,

सुन री सखी!

बस इतनी- सी है मेरी साधना

उन संग पूरी हो मेरी हर यात्रा।

अवनीश कुमार
व्याख्याता (बिहार शिक्षा सेवा)

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