(मनहरण घनाक्षरी छंद में)
भाग-१
सभी लोग खाते अन्न,
एक जैसा होता तन,
एक ही तो जल पीते, हिंदू मुसलमां हैं।
सभी स्वांस लेते हवा,
जीवन जीने की दवा,
रहने को एक ही तो, जमीं आसमान है।
सभी के शरीर में तो-
एक जैसा होता खून,
सभी का ठिकाना होता, अन्त में मसान है।
धर्म मजहब नहीं-
किसी को भोजन देता,
आपसी फिर द्वंद क्यों, करते इंसान हैं।
भाग-२
सामने में कुछ लोग,
बोलते हैं मीठी जुवां,
बाद में असर होता, ज़हर समान है।
आपस में लड़ाने की-
करते हैं राजनीति,
इंसानी नफरत की, चलाते दुकान हैं।
बहलाकर बातों से-
लेते हैं हमें झांँसे में,
खाने से मालूम होता, फीका पकवान है।
एक ही है कारीगर-
जिसने बनाया हमें,
अमीर-गरीब सभी, उसी की संतान हैं।
जैनेन्द्र प्रसाद ‘रवि’
म.वि. बख्तियारपुर, पटना
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