कुकुभ छंद
ऐसी होती दीवाली।
मानस में दुर्भाव न होता,मुख पर बस होती लाली।
आओ सोच-विचार करें हम,
ऐसी होती दीवाली।।
जितना हो सामर्थ्य हमारा,उतना भी कर पाते तो।
पास झोपड़ी में हम जाकर,पहला दीप जलाते तो।।
किया उजाला जिस घर होता,बजती उस घर में ताली।
आओ सोच-विचार करें हम,
ऐसी होती दीवाली।।
ऐसा दीप जलाया होता, राग-द्वेष भी जल जाते।
ऊॅंच-नीच की खाई समतल,दो दिल आपस कर जाते।।
हृदय-गगन में दीपक जलता,रोती विभावरी काली।
आओ सोच विचार करें हम
ऐसी होती दीवाली।।
वाणी कोयल वाली होती,सुनकर सभी अघाते तो।
मुख से भर-भर मीठी बोली, रामराज ले आते तो।।
गाॅंठ लगे ना होते दिल में ,होते फिर गौरवशाली।
आओ सोच विचार करें हम,
ऐसी होती दीवाली।।
रोते तो सब मिलकर रोते,हॅंसते तो हॅंसते सारे।
रहते बनकर चाॅंद-चाॅंदनी,या बनकर रहते तारे।।
सारा जग तरुवर हो जाता,हम होते उसकी डाली।
आओ सोच-विचार करें हम,
ऐसी होती दीवाली।।
✍️✍️रामपाल प्रसाद सिंह ‘अनजान’
प्रभारी प्रधानाध्यापक मध्य विद्यालय दरवेभदौर
