हे हरि क्लेश हरो -रामपाल प्रसाद सिंह

हे हरि! क्लेश हरो।
विधा गीत।

मेरे पीछे पड़ा जगत है,कर दो मालिक मदद जरा।
सूख रहे जीवन उपवन को,हे हरि!कर दो हरा-भरा।।

देना है तो दे दो मुझको,हमको तुम अपना जानो।
अवगुण से है भरा कलेवर,हे स्वामी!तुम पहचानो।।
चाहत इतनी भौतिक सुख की,सुख से है जीना दूभर।
हरसाते हैं सपने मुझको,त्रिविध ताप तन-मन छूकर।।
ऊपर से मैं हरा-हरा हूॅं,कर अंतस को तनिक हरा।
सूख रहे जीवन उपवन को, हे हरि!कर दो हरा-भरा।।

घटित नहीं है कुछ भी अच्छा,सावन पावन बदल गया।
बसी हुई पर्वत की बस्ती, प्रलय देख कर दहल गया।।
थे मेरे ये सब अपने ही,हरे-भरे दिल के टुकड़े।
तिनके बनकर बहते घर-घर,डरे हुए पर्वत मुखड़े।।
स्नेहिल बादल कष्ट दे रहे,जनभावन है डरा-डरा।
सूख रहे जीवन उपवन को, हे हरि!कर दो हरा-भरा।।

पर्वत लेकर पवन वेग से,गदा भाॅंजने वाले तू।
लिए सुदर्शन ऊॅंगली ऊपर,कंठ काटने वाले तू।।
अपने रहते क्षीरसिंधु में,मेरे लिए गॅंदा नाला।
हे भगवन!अब राह दिखाओ,लगा हुआ मुख पर ताला।।
पाप भार से भारी तन-मन,दे-दो पावन पुण्य धरा।
सूख रहे जीवन उपवन को, हे हरि!कर दो हरा-भरा।।

भोर हुई घर से निकले हम,चाॅंद देख घर आते हैं।
खूॅंन-पसीने बहा-बहाकर,धन कुबेर भर लाते हैं।।
और..और अब सब्र नहीं है,माया में तन है लिपटा।
उम्र चढ़ी है अब ढलान पर,डर मारे मैं हूॅं सिमटा।।
जीवन सौंप रहा निर्जन में, हे स्वामी! देना पहरा।।
सूख रहे जीवन उपवन को, हे हरि!कर दो हरा-भरा।।

रोते तुलसी पड़े स्वर्ग में,देख रहे कुत्सित जग को।
टूट रहे आदर्श हमारे, त्याग रहे प्राची मग को।।
रामराज है दर्पण स्वर्गिक,रे मन! तकना छोड़ दिया।
भलमनसाहत सुशीलता शुभ,फल को चखना छोड़ दिया।।
अच्छा है “अनजान”छंद भी,कह दो जग को सकल मरा।।
सूख रहे जीवन उपवन को, हे हरि!कर दो हरा-भरा।।

रामपाल प्रसाद सिंह ‘अनजान’

प्रभारी प्रधानाध्यापक मध्य विद्यालय दरवेभदौर
प्रखंड पंडारक जिला पटना बिहार ।

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