कहर कुदरत का
कुदरत का यह कहर है,
या फिर मानव ने विष घोला है।
हाहाकार मचा धरती पर,
किसने द्वार विनाश का खोला है ?
लगातार कटते पेड़ो की
शाखाएंँ यह बोल गई।
अत्याचार सहती धरती की,
सहनशक्ति अब डोल गई।।
धरती बाँधी,अंबर बाँधा,
पवन वेग न बाँध सके।
अपनी शक्ति के अस्त्रों को हम,
पानी पर न साध सके।।
तिनका- तिनका जोड़ा वर्षो से,
सब पल भर में बिखर गया।
मूक बने सब रहे देखते,
कुदरत के कहर से उजड़ गया।।
नाम विकास का लेकर धरती के,
कण- कण से खिलवाड़ किया।
कभी आग, कभी धरती डोली,
अब बिपरजोये का रूप लिया।।
बिंदु अग्रवाल
मध्य विद्यालय गलगलिया किशनगंज बिहार
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