एक था नन्हा बालक,
छिन गया जिसका बचपन,
जो पार किया था अभी,
उम्र का आठवां सावन।
अपने पिता को देख रहा था,
जो चिरनिंद्रा में लेटा था,
कोलाहल जो गमगीन था,
वह कुछ समझ नहीं पाया था।
चिता के चारो ओर घूम रहा था
जिससे जीवन की डोर बंधा था,
जलते चिता को देख रहा था,
शरीर जो भष्म हो रहा था।
वह वट वृक्ष रहा न अब,
छिन गया अवलंबन तब,
सोचता छाहँ मिलेगी कब।
कोई उसे माने अपना जब।
खेल रहा था हमजोली संग,
पल मेंं हुआ था खुशियाँ भंग।
जिसे वह खेल समझ रहा था,
बाल्यमन का अंतिम दर्शन था।
एस.के.पूनम।
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