पश्चिमीकरण,औद्योगीकरण और नगरीकरण के बढ़ते प्रभाव के कारण हमारी ग्रामीण संस्कृति की पहचान खत्म होती जा रही है। पाश्चात्य अंधानुकरण की होड़ में हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। यह चिंता का विषय है। इसी चिंता को रेखांकित करती प्रस्तुत है मेरी यह रचना ।
खोते जीवन की कुछ तो पहचान बचा कर रख लेना ।
प्रेम दया अपनत्व और ईमान बचाकर रख लेना।।
आने वाली पीढ़ी जब पूछेगी दुनिया कैसी थी।
बतलाने को घर के ये समान बचा कर रख लेना।।
मिट्टी का वो घर दरवाजा ,आंगन वो तुलसी चौरा ।
और जहां सब बैठे वो दालान बचा कर रख लेना।।
रख लेना बाबा का लोटा, लाठी, खटिया और पोथी।
रखना जांता चक्की, गेहूं धान बचा कर रख लेना।।
रख लेना वह बाग बगीचा,पीपल बरगद की छैयां।
पुस्तैनी वो खेत और खलिहान बचा कर रख लेना।।
रख लेना बैलों की जोड़ी, हल हरीश पालो लगना ।
आदिम युग के सारे अनुसंधान बचा कर रख लेना।।
रखना होली, दीवाली, वैशाखी, ईद और क्रिसमस।
ग़ालिब की ग़ज़लें,मीरा के गान बचा कर रख लेना।।
समदन सोहर और पराती, विरहा कीर्तन और भजन ।
अपने मन में पुरुखों के अरमान बचा कर रख लेना ।।
मंदिर मस्जिद गिरिजाघर, गुरुद्वारे चाहे ढह जाएं ।
मन में लेकिन पूरा हिंदुस्तान बचा कर रख लेना।।
अर्जुन परिवर्तन का होना कभी न रुकने पाया है।
सब कुछ चाहे बदले पर इंसान बचा कर रख लेना
अर्जुन प्रभात
