जुआ-रामपाल प्रसाद सिंह ‘अनजान’ 

छल सुयोधन संग लेकर,चल पड़ा दरबार में।

माॅंगना है जो नियोजित,शेष अगली बार में।।

पास राजा के पहुॅंचकर,चाल वैसी ही चली।

दाव का विश्वास पाकर,ढाल संगत ही ढली।।

हर्ष का गुब्बार लेकर,नाचते आया वहाॅं।

साथ शकुनी है कुटिलता,पास में बैठी जहाॅं।।

आ गए फौरन युधिष्ठिर,तात आज्ञा मानकर।

देर फिर किस बात छाती,आ गए हैं तानकर।।

हार से प्रारंभ करती,चाल कुत्सित हो गई।

जीत लेकर दंभ में थे,हार निश्चित हो गई।।

जीत के विश्वास में सब,कुछ लगे थे दाव पर।

नैन सबके रो पड़े थे,एक ही प्रस्ताव पर।।

संपदा सब लुट गई थी,द्रौपदी दासी बनी।

पूर्व घटना स्रोत पाकर,खून की प्यासी बनी।।

बासना हुंकार भरती,कर्ण की जिह्वा चढ़ी।

जो बची थी पास बैठे,दोस्त की जिह्वा मढ़ी।।

जो वहाॅं थे श्रेष्ठ बैठे,भीष्म गुरुजन और भी।

देखते सब रह गए थे,कर सके ना गौर भी।।

ज्वाल धरती से निकलती,देख कर सब मौन थे।

थे वहाॅं गांधीवधारी,भीम भ्राता बौन थे।।

हार कर ऐसे झुके थे,ज्योंं झुकी थी डालियाॅं।

या खड़े खलिहान जैसे,गेंहुओं की बालियाॅं।।

कर्म कुछ ऐसे किए थे,क्या कहूॅं कैसे हुआ।

दाव में दारा लगी हैं,चीज है कैसी जुआ।।

रामपाल प्रसाद सिंह ‘अनजान’ 

पूर्व प्रधानाध्यापक मध्य विद्यालय दर्वेभदौरआ

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