वह जो वतन पर कुर्बान हो गए-अपराजिता कुमारी

Aprajita

वह जो वतन पर कुर्बान हो गए

वह जो वतन पर कुर्बान हो गए,
आँखें नम और आवाम को जुबां दे गए,
वतन पर सदके, जो अपनी जान दे गए,
जवानियाँ जो देश पर, निसार कर गए।

घर से निकले जो, सर पर बांधे कफन,
नसों में इंकलाब, दिलों में मोहब्बतें वतन,
कातिलों के मंसूबे, यूं खाक कर गए
सरफरोशी की रस्म यूं अदा कर गए,

हाथों में हथकड़ियाँ पैरों में जंजीर सजा ए काला पानी, या सजा-ए-मौत
कातिलों को फिक्र थी क्या है तर्ज़ ए जफ़ा,
शहीदों को देखनी थी,

उनके सितम की इंतहा 

न माथे पर शिकन, ना होठों पर फरियाद,
निकल पड़े थे परवाने,

लेकर हथेली पर अपनी जान ,
फांसी दिख रही थी इन्हें, महबूब ए आगोश, 
और जुबां पर सबके, इंकलाब दे गए

कातिलों की महफिल में, जिंदगी थी जिनकी मेहमान, 
तमन्ना ए शहादत, भी उनके लहू में थी जवाँ,
जो वतन पर हसरतें, कुर्बान कर गए
फिजा ए आजादी जो, हमारे नाम कर गए,

वह जो वतन पर कुर्बान हो गए आँखें नम और आवाम को जुबान दे गए।

अपराजिता कुमारी
   राजकीय उत्क्रमित मध्य विद्यालय जिगना जगन्नाथ हथुआ गोपालगंज

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