रंग बदलते चेहरे – अवनीश कुमार

मैं तेरे पास कोई मेरे जैसा शख्स ढूंढता हूं,
तेरी अकड़ को ठिकाने लगता देखता हूं।
तेरी मूंछों को ताव देने पर भी हौसले के साथ गिरते देखता हूं।
तुझे गिरगिट-सा रंग बदलते, सर्प-सा जहर उगलते देखता हूं।
अपना काम निकलवाने में तुझे शहद- सी मीठी बात करते देखता हूं।

तुझे अपनी चाल पर भले ही गुमान क्यों न हो
मैं तुझे मकड़-जाल में फंसते देखता हूं।

तूझे अपनी चालाकी दिखाने में चतुर लोमड़ी बनते देखता हूं
तूझे अपनी असली पहचान छिपाने में भेड़िया बनते देखता हूं।
तूझे अपनी चाल पर भले ही गर्व क्यों न हो
मैं तूझे तेरी क्षीण होती शक्तियों से गीदड़ भभकी देते देखता हूं।

तुझे इच्छाधारी सर्प की तरह मतलब पूरे होते ही अपना रूप बदलते देखता हूं।
तूझे अवसर का लाभालाभ उठाने में कौवे की तरह लपकते देखता हूं।
तुझे अपनी गिद्ध दृष्टि से हर दूसरा शिकार ताकते देखता हूं

तुझे अपनी दंभ का अहसास भले ही न हो
मैं तुझे रंगे सियार की तरह तेरे चेहरे से नकाब उतरते देखता हूं।

अपनी धाक जमाने में तुझे हवाई फायरिंग करते देखता हूं
अपनी थोथी दलील से मैं तुझे हवा बांधते देखता हूं।
अपनी झूठी शानो-शौकत के लिए तुझे हवा- महल बनाते देखता हूं।

तुझे अपने गुमान पर भले ही अहम क्यों न हो
मैं तुझे तेरे गुमान को आसमान से धरातल पर पटकते देखता हूं।

लाखों की बातें करने वालों को
चंद सिक्के गिनते देखता हूं।
चंद सिक्को में हीं तेरी ईमानदारी की पोल खुलते देखता हूं।
तुझे पकड़े जाने पर नकली आंसू बहाते देखता हूं।
तुझे अपनी अकड़ पर भले ही गर्व क्यों न हो
मैं तुझे तेरी अकड़ को बंद कमरे में चरणन गिड़गिड़ाते देखता हूं।

तूझे तेरे अंतहीन अकड़ पर गुमान भले हीं क्यों न हो …
मैं तुझे तेरी झूठी शान को खुद की हीं आंखो में गिरते देखता हूं।
तेरे घमंड को अपने ही बोझ से दबते देखता हूं।

तुझे अपनी कल की छल पर भले ही गर्व क्यों न हो
मैं तुझे तेरे होठों पर मुस्कान लेकिन तेरी ललाट पर हरदम चिंता की शिकन देखता हूं।

तू बता या न बता….
मैं तुझे पानी बिन प्यासी मछली की तरह तड़पते देखता हूं।

तूझे तेरे खोखले दलील की गूंज सुनाई दे या न दे…
मैं तुझे अब हर घड़ी घुट-घुट कर मरते देखता हूं।
तुझे अपने ही जहर में तिल- तिल मरते देखता हूं।

मैं तेरे पास कोई मेरे जैसा शख्स ढूंढता हूं,
तेरी अकड़ का धुंआ उठते देखते हूं।
तेरी अकड़ को मिट्टी में मिलते देखता हूं।
तेरी अकड़ की राख को हवा में उड़ते देखता हूं
तेरी अकड़ को लोटे में भरते देखता हूं।
तेरी अकड़ को गंगा-जमुना में बहते देखता हूं।

मैं तेरे पास कोई मेरे जैसा शख्स ढूंढता हूं
तेरी अकड़ को ठीक से ठिकाने लगता देखता हूं ।

अवनीश कुमार
व्याख्याता (बिहार शिक्षा सेवा)

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