आलोचना सत्य हो, रहे उचित आधार,
मन को चोट दे नहीं, बोले मधुर विचार।
कटु वाणी की धार से, न टूटे मनहार,
शब्द वही संजीवनी, जिससे हो उपकार।
कहना सबको चाहिए, हो केवल सत्कार,
सत्य बिना जब निंदा हो, बन जाती अंगार।
शब्द सजे शृंगार से, हो रचना साकार,
समालोचना शीश पर, सजती हो उपहार।
छंद, भाव, अलंकार में, खोजे जो आधार,
वही समीक्षक योग्य है, सुधार करे सार।
कभी न बोले तीर-सा, कभी करे न वार,
हो आलोचक मंत्रवत, हो शांत सरोकार।
यदि हो शब्दों में प्रभा, सच्चा हो आकार,
तो फिर निखरे भाव भी, बन कविता उद्गार।
सुरेश कुमार गौरव, प्रधानाध्यापक, उ.म.वि.रसलपुर, फतुहा, पटना (बिहार)
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